कागज़ की इन लकीरों में ही कहीं खुद को ढूँढता हूँ
इन्ही में कभी ख़ुशी , इन्ही में कभी सुकून ढूँढता हूँ
खुदी के सवालों के शोर में, थोडा एकांत ढूँढता हूँ
खुदी ने बांधीं जो बेड़ियाँ हैं, उन्ही का छोर ढूँढता हूँ
जिन्हें छोड़ आगे बड़ा , अब उन्हें ही ढूँढता हूँ
राहों में अपने घर को , गैरों में अपनों को ढूँढता हूँ
ना जाने क्यूँ औरों की आँखों में अपने वजूद को ढूँढता हूँ
खुद में किसी और को , आईने में खुद को ढूँढता हूँ
शोर में सन्नाटे को , तनहाई में एक झलक ढूँढता हूँ
अपने ही कदमो के निशानों में सफ़र की शुरुआत ढूँढता हूँ
बहते हुए समय के कभी इस पार तो कभी उस पार देखता हूँ
हर पल में कभी ख़ुशी तो कभी जीने की वजा ढूँढता हूँ