मेरे ही तसवुर से निकला खाब का टुकडा है जैसे,
आईने में झलकता, किसी और का चेहरा है जैसे,
यादों की ओट से झांकता कोई मासूम परिंदा है जैसे
उम्मीद के सहारे संभलता कोई अपना है जैसे
गुज़रते वक्त को ताकता , लंबे किसी सफर का मुसाफिर है जैसे
पास आने को तरसता , भीड़ में खोया कोई यार है जैसे
उससे किए वादों को भुलाऊँ मैं कैसे
आखों की खोती चमक , लौटाऊँ मैं कैसे
कैसे बताऊँ की रास्ते ही कभी कभी मंजिले होती हैं
दूरिआं ही कभी कभी, करीबियों का सबब बनती हैं
भूला नही हूँ उसे , बस पलकों मे छुपाया है मैंने
कुछ इस तरह अपने सपने को , टूटने से बचाया है मैंने