आसमान को छूती इमारतों में मिला
गिरते हुए ज़मीर का निशाँ
बड़े होते घरों में मिला
ठहरे हुए सन्नाटे का निशाँ
खिलखिलाती हर हँसी में मिला
दबे हुए एक दर्द का निशाँ
हर खुली बाँहों में मिला
सिमटे हुए एक दिल का निशाँ
हर एक अपने में मिला
एक बेरुखे बेगाने का निशाँ
हर दोस्त की यारी में मिला
एक झूठे वादे का निशाँ
जब बंद की आँखे अपनी
ठहरने दिया मन को ज़रा
दुनिया को छोड पीछे
जब अपने ही भीतर को चला
सब सिमट गया मेरे आहोश में जैसे
बोहोत देर बाद आख़िर, फिर में अपने आप से मिला
देखा ख़ुद को ख़ुद की आंखों से मैंने
बहेने दिया ख्यालों को ज़रा
दिल के गहरे सन्नाटे में मिला
न बैर न दोस्ती , न खुशी न गम,
बस एक सच्चे सुकून का निशाँ