सफ़र

वक़्त से बंधी, ये बेबस सी यादें
कागजों में उलझी , न जाने कितनी आन्हे

अपनों से दूर , पर अपने में गुम हूँ कुछ ऐसे
दूर लेहेरों में ठहरी , अकेली किसी नाव के जैसे

कभी तो यह लहरें फिर किनारें का रुख करेंगी
कभी तो यह राहें फिर घर को मुडेंगी

कितनी बार बहेते हुए लम्हे में झाँका है
कईं बार खुद को वक़्त के आईने में ताका है

पूछने से डरता हूँ की आगे क्या होने वाला है
कितनी बार न जाने इस सवाल को टाला है

सच है बोहोत दूर आ गया हूँ साहिल से ,
साथ हैं बस वो वादे , किये थे जो मैंने इरादों से

लौटना मुमकिन नहीं , न ठहर जाने से जी भरता है
न जाने क्या चीज़ है उस पार जिसे पाने को दिल करता है

यही सोच आज फिर ये कदम , सफ़र में आगे को बड़े ,
की शायद बह जाने पर ही ठिकाना मिले
शितिज पर ही जाके , अब शायद किनारा मिले